चुनाव से ठीक पहले नेता जनहित में दल बदल रहे हैं या मामला कुछ और , पढ़िए जनता का नजरिया

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चुनाव से ठीक पहले राजनीतिक दलों में छुटभैये नेताओं की दलबदल की होड़ मची हुई है। कोई झटका मानकर चल रहा है तो कोई इसे बड़ा झटका मान रहा है ,लेकिन क्या वास्तव में आम मतदाताओं में इसका असर पड़ेगा ऐसा लगता तो नहीं। हालांकि दलबदलू नेता जनता के हित में दल बदलने की बातें कह रहे हैं लेकिन यह पब्लिक है सब जानती है।

बता दें कि राजनीतिक पार्टियों में बड़े नेताओं का दल-बदल टिकट वितरण से पहले ही सम्पन्न हो जाता है। होशियार नेता समय से यह कदम उठाकर पार्टियों से टिकट लेकर चुनाव मैदान में उतर जाते हैं। तो वहीं चुनाव के बीच दल-बदल करने की बारी छुटभैये नेताओं की आती है। जिले की तमाम विधानसभाओं में इस समय दल-बदलने वाले नेताओं की मौज है। जनता का कहना है कि हर पांच साल में राजनीतिक आस्था बदलने वाले यह नेता इस समय चांदी काट रहे हैं। मज़े की बात यह है कि इन छुटभैये नेताओं का अपना कोई खास जनाधार नहीं होती लेकिन राजनीतिक दलों के प्रत्याशियों को न मालूम कौन सी ऐसी जरूरत आन पड़ती है कि वो इन लोगों को अपने पाले में करने के लिए जरा भी नहीं चूकते।


दल-बदल और तोड़फोड़ की राजनीति में भाजपा-कांग्रेस हो या फिर सपा और आम आदमी पार्टी कोई भी पीछे नहीं है। इस तरह के दल-बदल की वजह से जनता में यह बातें चल रही हैं कि यह जो नेता इस समय अपनी-अपनी राजनीतिक आस्था बदल रहे हैं और बड़ी-बड़ी बातें कर रहे हैं ये दरअसल ‘बिकाउ’ होते हैं। पांच साल इस दल के साथ तो पांच साल दूसरे दल में रहते हैं। खबरें चलती हैं कि फलां पार्टी को फलां पार्टी के प्रत्याशी ने जोर का झटका दिया है। जबकि वास्तव में देखा जाए तो दल-बदलने वाले लोग बेपेंदी का लोटा होते हैं। कभी कहीं पर लुढ़कते दिखेंगे तो कभी कहीं पर।


फूल-माला पहनकर यह भुटभैये नेता प्रत्याशी के साथ खड़े होकर अपने आप को भावी विधायक से कम नहीं समझते। इस समय रोज़ाना ही लोग कभी भाजपा छोड़ कांग्रेस का दामन थाम रहे हैं तो कभी कांग्रेस छोड़ भाजपा का दामन। यह लोग समाज के बीच मज़ाक का पात्र बनकर रह गए हैं। लोगों का कहना है कि ऐसे लोग किसी काम के नहीं होते। ना ही प्रत्याशी की जीत का कोई आधार बनते हैं लेकिन फिर भी प्रत्याशियों को इनको अपने समर्थन में खड़ा करने की मानों होड़ मची हुई है।