भगवान श्री कृष्ण समस्त देवी देवताओं के उदगम कारक हैं- धीरशान्त दास

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भगवान श्री कृष्ण समस्त देवी देवताओं के उदगम कारक हैं- धीरशान्त दास

मुरादाबाद। रेड सेफायर बैंकट, आशियाना कालोनी में आयोजित श्रीमद्भागवत कथा भक्तियज्ञ के षष्ठम दिवस कथा व्यास एवं मठ-मन्दिर विभाग प्रमुख श्रद्धेय धीरशान्त दास अर्द्धमौनी ने बताया कि तैंतीस करोड़ देवी देवताओं को प्रकट करने वाले पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान श्रीकृष्ण ही है।   भगवन्नाम का चिन्तन करते समय एक बात सदैव याद रखना चाहिए वह परमात्मा और उसके नाम का चिन्तन सतत् और निरन्तर होते रहना चाहिए। फिर चाहे वह भक्ति से किया गया चिन्तन हो या फिर बैर भाव से किया हुआ चिन्तन। कुछ लोग कहते हैं कि कंस तो पापाचारी थी तो वह भगवद् सारूप्य को कैसे प्राप्त हो गया।  बात भी विचारणीय है। उसका रहस्य यह है कि कंस निरन्तर श्री कृष्ण का चिन्तन करता था। भला कंस कैसे और क्यों श्री कृष्ण का चिन्तन करता था। वेदव्यास जी ने कहा कि वह भले ही कृष्ण का चिन्तन भयवश करता था परंतु निरन्तर उसका ध्यान कृष्ण में ही था।
श्रीहरि के प्रति बैर ठानकर, बैर की गांठ बांधकर, कंस उठते, बैठते, खाते, पीते, सोते, जागते और चलते, फिरते।
सदा ही श्रीकृष्ण के चिंतन में लगा रहता था। जहां उसकी आंख पड़ती, जहां कुछ आहट होती वहां उसे श्री कृष्ण ही देख पड़ते। इस प्रकार वह सारे जगत में भगवान श्री कृष्ण को ही देखने लगा अर्थात उसको सारा जगत कृष्णमय दिखने लगा था।

      इस अनन्य चिंतन के कारण जिसके मूल में द्वेष और भाई ही था उसे भगवतस्वरूप्य की प्राप्ति हो गई। चाहे पापाचारी हो या सदाचारी भगवान का चिन्तन उसे भगवदमय कर ही देता है। भगवान का नमोच्चारण, भगवान का चिन्तन पापाचारी को भी वैकुण्ठ तक पहुँचा देता है। भाव कोई भी हो उद्देश्य एक ही होना चाहिए कि येन केन प्रकारेण मुख से भगवान का नाम निकलता रहे। यदि कोई अधर्मी है , पापकर्मों में लिप्त हो और कोई साधन न कर पाये तो भी यदि उसके मुख से भगवन्नाम निकलता रहे तो उसका कल्याण हो जाता है। यह मैं नहीं बल्कि हमारे शास्त्रों में कहा गया है।
   जो सर्वत्र और सर्वदा पाप के आचरण किया करते हैं वे भी श्रीहरि का नाम संकीर्तन करके भगवान विष्णु के परम धाम को चले जाते हैं। इतना पावन एवं पवित्र है हमारे भगवान का नाम।

    सत्ययुग, त्रेता और द्वापर में जो गति पूजा, यज्ञ और योग से प्राप्त होती है, वही गति कलियुग में लोग केवल भगवान के नाम से पा जाते हैं। कलियुग कल्याण तो नामजप से ही होना है।
     हमें मनुष्य शरीर मिल गया, भगवत्प्राप्त महापुरुषों का सत्संग मिल गया, भगवत्प्राप्ति की कुछ रुचि भी है। ये सभी संयोग अकारण नहीं हो सकते। भगवान् के हमारे भगवत्प्राप्तिकी जँच गई है। ऐसा जान कर साधकों के उत्साह और व्याकुलता आनी चाहिए कि अब प्राप्ति में देरी क्यों हो रही है। व्याकुलता से जितना जल्दी काम बनता है, उतना जल्दी विवेक विचार से नहीं बनता। व्यक्ति को कभी भी सच्चाई, दानशीलता, निरालस्य, द्वेषहीनता, क्षमाशीलता और धैर्य – इन छह गुणों का त्याग नहीं करना चाहिए

    व्यवस्था में डा० अजय पोपली, मनीष पोपली, सोमनाथ पोपली, श्रीमती ऊषा अग्रवाल, दीपाली अग्रवाल, सुमित अग्रवाल, विनीत कुमार अग्रवाल, संजय स्वामी, प्रभा बब्बर, पायल मग्गू, माया अरोड़ा, सारिका अग्रवाल, सुधा शर्मा, अजय शर्मा, अनिमेष शर्मा, अविनाश शाह, राजू चावला, राजेश भारतीय, डा० अन्तरिक्ष अग्रवाल आदि ने सहयोग दिया।

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